पीजीआई इमरजेंसी: जहां गलियारों में चल रहा इलाज, घंटों का इंतजार… रात को आए तो डाॅक्टर की फटकार भी

पीजीआई इमरजेंसी: जहां गलियारों में चल रहा इलाज, घंटों का इंतजार… रात को आए तो डाॅक्टर की फटकार भी

अमर उजाला ने रात पीजीआई के इमरजेंसी और उसके बाहर 3 घंटे (रात 10.15 से लेकर 1.15 बजे तक ) तक मरीजों के बीच में रहकर मिलने वाले इलाज की हकीकत जानी।तारीख 27 जून। रात 11.40 बजे। पीजीआई का इमरजेंसी वार्ड। पंजाब के संगरुर जिले से सुलोचला देवी को उनके परिवार वाले लेकर आते हैं। अंदर जाते समय गार्ड का कहना है कि केवल दो लोग मरीज के साथ जाएंगे। हालांकि तीन लोग अंदर पहुंचते है।

पर्चा बनवाने के लिए पहुंचते हैं तो पता चलता है कि लाइन में लगना पड़ेगा। पांच लोग पहले से लगे हैं। 20 मिनट बाद पर्चा तो बन जाता है, उस दौरान मरीज ऐसे ही बेहोश पड़ी हुई है। सुलोचना का इलाज तकरीबन एक घंटे बाद भी नहीं शुरू हो पाता है। ऐसे एक नहीं कई मरीज पीजीआई के इमरजेंसी में मिले जिनका न तय वक्त पर इलाज मिल सका और मिला भी तो बहुत धक्के खाने के बाद। 

गहने निकालने के लिए स्टाफ नहीं

सुलोचना का पर्चा बनने के बाद मेडिकल स्टॉफ मरीज को न्यूरो सर्जरी ओपीडी वार्ड में ले जाने के लिए बोलता है। वहां जाने के बाद एक डॉक्टर आते हैं। कुछ जांच बताते हैं और मरीज के गहने और बाकी सामान निकालने को बोलते हैं। मौके पर कोई नर्स नहीं थी। ऐसे में एक व्यक्ति परिवार की महिला को बुलाने के लिए बाहर दौड़ता है, दूसरा सदस्य रजिस्ट्रेशन कराने के लिए काउंटर नंबर पर 20 पर
जाता है। इस दौरान 20 मिनट और लगते हैं। 11.40 बजे आए मरीज का करीब 45 मिनट बाद 12.25 तक कोई इलाज नहीं मिलता है।

डॉक्टर एक सदस्य को बताते हैं कि दिमाग की नसें फट गई हैं, ऑपरेशन होगा। इस दौरान ऑपरेशन के खतरों की जानकारी भी परिवार वालों को दी जाती है। उसके बाद मरीज को जांच के लिए तैयार किया जाता है। हालांकि इस दौरान एक घंटे से ज्यादा समय गुजर जाता है लेकिन इलाज के नाम पर कोई खास कार्रवाई नहीं शुरू हुई। 

अमर उजाला की टीम ने अपने पड़ताल में पाया कि यहां हर समय 100 मरीजों की इमरजेंसी में पहले से करीब 350 से 400 लोगों का इलाज चल रहा है। स्ट्रेचर ही मरीज के लिए बेड है। जगह नहीं है तो परिवार वाले गलियारे में भी मरीज को लेकर पड़े रहते हैं। दवा से लेकर पानी तक वहीं चढ़ता है। रात में समय गुजरने के साथ इमरजेंसी की स्थिति खराब होती जाती है। सीनियर डॉक्टर तो शायद ही कहीं
नजर आते हैं। एक मरीज को परिवार वाले सेक्टर 32 से रेफर कर लाते हैं तो इमरजेंसी में मौजूद डॉक्टर का कहना है कि रात को आप लोगों को क्यों भागना होता है। अब पहले से परेशान परिवार के लोग जब ऐसा रिस्पांस देखते हैं तो उनको और ज्यादा तकलीफ होती है।

तीन घंटे बाद अल्ट्रासाउंड हुआ

पानीपत से अपनी पत्नी नीरज को लेकर आए आशीष शर्मा बताते हैं कि दो दिन पहले आया था। पत्नी के पेट में दर्द बहुत है। अल्ट्रासाउंड बाकी जांच हुई है। ईसीजी और अल्ट्रासाउंड की जांच के लिए 3 से 4 घंटे तक इंतजार करना पड़ता है। शाम को ब्लड टेस्ट कराया है अभी 12 बजे रात तक रिपोर्ट नहीं आई है। पेट में काफी तेज दर्द रहता है, जब भी दर्द उठता है तो इंजेक्शन दे दिया जा रहा है। बीमारी
क्या है अभी तक पकड़ में नहीं आई है। ऐसे में प्रॉपर इलाज शुरू नहीं हो पाया है। अभी तक किसी भी सीनियर डॉक्टर ने मरीज को देखा भी नहीं है।

दो दिन तक रखा, अब जगह नहीं मिल रही

हिमाचल के बिलासपुर निवासी हरि सिंह को पेट की समस्या है। छह महीने पहले पीजीआई में ऑपरेशन हुआ था। बेटे रमेश ने बताया कि पेट में पानी भर गया है। दो दिन तक इमरजेंसी में डॉक्टरों ने रखा अब वहां जगह नहीं है। जगह न मिलने की वजह से गलियारे में ही स्ट्रेचर लगा दिया है। दवा-पानी यहीं चल रहा है। हालांकि अच्छी बात है कि पीजीआई का स्टॉफ यहां आकर काम कर जाता है। अब जगह ही नहीं है तो गलियारे में ही पिता के साथ रहना मजबूरी है।

स्ट्रेचर पर मरीज और नीचे सामान

मरीजों की संख्या की तुलना में यहां व्यवस्थाओं बहुत अभाव है। ओपीडी में इलाज के बाद मरीज के परिवार वालों को जहां जगह मिलती है स्ट्रेचर वहीं लगा दिया जाता है। गलियारे से लेकर शौचालय के पास तक मरीज और परिवार के लोग मिल जाएंगे। स्ट्रेचर के ऊपर मरीज का इलाज चल रहा है और नीचे सामान पड़ा रहता है। जैसे-तैसे मोबाइल चार्ज कर लोग उसके सहारे समय गुजारते हैं।

ग्रामीण मरीज गार्ड से लेते हैं जानकारी

रात को एंट्री के समय मौजूद गार्ड मरीज के साथ दो लोगों से ज्यादा को अंदर नहीं जाने देते हैं। भीड़ का हवाला देकर उनको रोक दिया जाता है। अगर किसी मरीज का कपड़ा बदलना हो तो वहां इमरजेंसी में कोई कर्मचारी नहीं मिल पाता है। महिला नर्स नजर नहीं आती। ऐसे में तीमारदार एक बार फिर बाहर आता है और परिवार के सदस्य से अंदर चलने को कहता है। कई बार गार्ड एंट्री देते हैं तो कभी मना कर देते हैं। ऐसे में दूसरे मरीज के परिवार की मदद लेनी पड़ती है। ग्रामीण अंचल से आए मरीज तो यहां सूचनाओं के लिए गार्ड पर निर्भर रहते हैं। भीड़ का आलम यह है कि स्ट्रेचर निकालने में कई बार मरीज के शरीर में लगी अलग-अलग पाइप दूसरे स्ट्रेचर में फंसने लगती है।